दुर्भाग्य पर अपने माँ भारती रो रही है,
कलमकारों की कलमें फिर भी सो रही हैं।
जहाँ प्राण त्यागे आज़ाद, मंगल, भगत ने,
उस धरती पर विदेशियों की अर्चना हो रही है।
जहाँ देव-तुल्य समझे जाते थे साधु,
वहाँ साध्वी साम्प्रदायिक हो रही हैं।
जहाँ गुरुकुलों में दी जाती थी दीक्षा,
वहाँ आज संस्कृत विलुप्त हो रही है।
जहाँ घंटे-शंखों से गूँजते थे शिवालय,
वहाँ पाँच वक़्त आज़ानें हो रही हैं।
संभल जाओ, उठो, जागो ऐ हिन्द वालों,
मेरी माँ की आज़ादी फिर से खो रही है।
कलमकारों की कलमें फिर भी सो रही हैं।
जहाँ प्राण त्यागे आज़ाद, मंगल, भगत ने,
उस धरती पर विदेशियों की अर्चना हो रही है।
जहाँ देव-तुल्य समझे जाते थे साधु,
वहाँ साध्वी साम्प्रदायिक हो रही हैं।
जहाँ गुरुकुलों में दी जाती थी दीक्षा,
वहाँ आज संस्कृत विलुप्त हो रही है।
जहाँ घंटे-शंखों से गूँजते थे शिवालय,
वहाँ पाँच वक़्त आज़ानें हो रही हैं।
संभल जाओ, उठो, जागो ऐ हिन्द वालों,
मेरी माँ की आज़ादी फिर से खो रही है।
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