Friday, 19 August 2011

अब और करो विश्राम नहीं

संसद में चलते हैं जूते सदाचार का नाम नहीं,
हर नेता है रावण जैसा किसी के भीतर राम नहीं।

धरती-पुत्र की आत्म-हत्या पर राजनीति जो करते हैं,
उनसे पूछो क्या खाओगे जब उपजेगा धान नहीं।

कालाबाज़ारी के चलते बीते कुछ दिन फ़ाके में,
फिर चल बसा गरीब मिला उसे वोट देने का ईनाम यही।

लूट मची है चहूँ ओर बस भ्रष्टाचार ही दिखता है,
हर कुर्सी है नोट की भूखी मानवता का नाम नहीं।

क्रांतिकारियों ने क्या इसी भारत का सपना देखा था,
उनके स्वप्न की लाज बचा लो उसे करो बदनाम नहीं। 

उठो भारती माँ के सपूतों मात्रभूमी पर संकट है,
बहुत हुआ बस बहुत हुआ अब और करो विश्राम नहीं।

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