पाकिस्तान से आये हिंदू 'शरणार्थी' कहलाते हैं,
उनको वापस जाना होगा मंत्री सब चिल्लाते हैं।
गर ये हिंदू ना होकर के अन्य धर्म से हुए होते,
इनकी सेवा में तत्पर सब मंत्री यही हुए होते।
कोई भी आगे ना आया इन्हें समर्थन देने को,
मानो सब राजी हों अपना मूक-समर्पण देने को।
भारत में हिंदू होना अपराध सरीखा लगता है,
जिसका झंडा भगवा है वो दल भी फीका लगता है।
कोई जा कर के उनकी आँखों की पीड़ा को समझे,
क्या-क्या सहन किया है तब आये हैं बड़ी उम्मीदों से।
उनको रोटी-कपड़ा-पानी की तुमसे दरकार नहीं,
लेकिन नर्क में वापस जाना भी उनको स्वीकार नहीं।
बस इतनी सी चाह है उनकी भारत में ही शरण दे दो,
वापस नहीं जायेंगे चाहे प्राण शरीर से तुम ले लो।
आतंकीयों के मानवाधिकार की जो बातें करवाते है,
ऐसे समय में ना जाने सब कहाँ लुप्त हो जाते हैं।
आई.एस.आई. का एजेंट जामा मस्जिद भीतर बैठा है,
हिम्मत है तो जेल में डालो तुम्हें चुनौती देता है।
बंग्लादेश से लाखों की घुसपैठ यहाँ पर होती है,
पर वो 'वोट-बैंक' हैं उन्हें पूरी आज़ादी होती है।
हिम्मत है तो पहले उन घुसपैठियों को वापस भेजो,
जो पहले आया उसको पहले जाने पर विवश करो।
लेकिन तुम में ऐसा करने का साहस पर्याप्त नहीं,
क्योंकि तुमको 'राजमहल' से ये अधिकार है प्राप्त नहीं।
Thursday, 1 December 2011
Saturday, 15 October 2011
Sunday, 2 October 2011
गाँधी वध
राम नाम सत्य है,
गोडसे का उचित कृत्य है।
हिन्दुत्व की रक्षा ज़रूरी थी,
गाँधी वध की मजबूरी थी।
वह संत के रूप में पाप था,
भारत माता पर श्राप था।
जब लाखों हिन्दू मरते थे,
रिफ़्यूजी बन कर फिरते थे।
यह विधर्मियों को बचाता रहा,
उन्हें पच्पन करोड़ दिलाता रहा।
जो सब कुछ छोड़ कर आए थे,
बस जान ही बचा पाये थे।
उन्हें अहिंसा ये सिखलाता रहा,
उनकी आत्मा को जलाता रहा।
इस सबसे होकर त्रस्त-त्रस्त,
गोडसे ने उठाया शस्त्र-शस्त्र।
और एक पिशाच का संहार किया,
भारत माँ का उद्धार किया।
Friday, 30 September 2011
भगत सिंह को नमन
यह पंक्तियाँ अपने आदर्श अमर शहीद भगत सिंह जी के 104वें जन्म-दिवस के अवसर पर लिखी थी।
ल्यालपुर में जन्म लिया था सन उन्निस सौ सात में,
पाई शहादत सुखदेव और राजगुरु के साथ में।
जिसने अंग्रेज़ों की संसद में बम मारे थे,
जिसके नाम मात्र से कांपते गोरे सारे थे।
पूर्ण स्वराज की माँग उठाकर जिसने राह दिखाई,
जिसने भरी जवानी में थी अपनी जान लुटाई।
उस भगत सिंह को मेरा शत-शत बार नमन है,
भारत माँ के सच्चे सपूत को बारंबार नमन है।
Thursday, 29 September 2011
सीधे शंखनाद होगा........
जो कहते हैं कि राज किया है हम पर उन्होंने सैकड़ों साल,
उनसे कह दो कि मानसिंहों और जयचंदों का था ये कमाल।
कुछ अपने ही थे धर्म-द्रोही जो करते रहे विश्वासघात,
वरना सिंहों पर राज करें श्वानों की इतनी कहाँ बिसात।
प्रभू राम-क्रष्ण का धर्म महान तुम इससे क्या टकराओगे,
ज्यों अब तक मिटते आये हो आगे भी मिटते जाओगे।
तुम हो गौरी के वंश-अंश तुम अभय-दान के पात्र नहीं,
जो भूल हुई राजा प्रथ्वी से अब होगी लेष-मात्र नहीं।
अब बंग से लेकर पिंडी तक हम आर्यावर्त बनायेंगे,
मर कर दफ़नाये जाते हो तुम्हें जीवित हम दफ़नायेंगे।
अब तक जो त्रुटी हुई हमसे हर त्रुटी सुधारी जायेगी,
अब भगवा के हाथों ये पूरी कौम ही मारी जायेगी।
ना होगी कोई चेतावनी और ना ही कोई संवाद होगा,
अबकी जो भभका क्रोधाग्नल तो सीधे शंखनाद होगा।
सीधे शंखनाद होगा, सीधे शंखनाद होगा.........
उनसे कह दो कि मानसिंहों और जयचंदों का था ये कमाल।
कुछ अपने ही थे धर्म-द्रोही जो करते रहे विश्वासघात,
वरना सिंहों पर राज करें श्वानों की इतनी कहाँ बिसात।
प्रभू राम-क्रष्ण का धर्म महान तुम इससे क्या टकराओगे,
ज्यों अब तक मिटते आये हो आगे भी मिटते जाओगे।
तुम हो गौरी के वंश-अंश तुम अभय-दान के पात्र नहीं,
जो भूल हुई राजा प्रथ्वी से अब होगी लेष-मात्र नहीं।
अब बंग से लेकर पिंडी तक हम आर्यावर्त बनायेंगे,
मर कर दफ़नाये जाते हो तुम्हें जीवित हम दफ़नायेंगे।
अब तक जो त्रुटी हुई हमसे हर त्रुटी सुधारी जायेगी,
अब भगवा के हाथों ये पूरी कौम ही मारी जायेगी।
ना होगी कोई चेतावनी और ना ही कोई संवाद होगा,
अबकी जो भभका क्रोधाग्नल तो सीधे शंखनाद होगा।
सीधे शंखनाद होगा, सीधे शंखनाद होगा.........
Thursday, 25 August 2011
Saturday, 20 August 2011
Friday, 19 August 2011
अब और करो विश्राम नहीं
संसद में चलते हैं जूते सदाचार का नाम नहीं,
हर नेता है रावण जैसा किसी के भीतर राम नहीं।
धरती-पुत्र की आत्म-हत्या पर राजनीति जो करते हैं,
उनसे पूछो क्या खाओगे जब उपजेगा धान नहीं।
कालाबाज़ारी के चलते बीते कुछ दिन फ़ाके में,
फिर चल बसा गरीब मिला उसे वोट देने का ईनाम यही।
लूट मची है चहूँ ओर बस भ्रष्टाचार ही दिखता है,
हर कुर्सी है नोट की भूखी मानवता का नाम नहीं।
क्रांतिकारियों ने क्या इसी भारत का सपना देखा था,
उनके स्वप्न की लाज बचा लो उसे करो बदनाम नहीं।
उठो भारती माँ के सपूतों मात्रभूमी पर संकट है,
बहुत हुआ बस बहुत हुआ अब और करो विश्राम नहीं।
हर नेता है रावण जैसा किसी के भीतर राम नहीं।
धरती-पुत्र की आत्म-हत्या पर राजनीति जो करते हैं,
उनसे पूछो क्या खाओगे जब उपजेगा धान नहीं।
कालाबाज़ारी के चलते बीते कुछ दिन फ़ाके में,
फिर चल बसा गरीब मिला उसे वोट देने का ईनाम यही।
लूट मची है चहूँ ओर बस भ्रष्टाचार ही दिखता है,
हर कुर्सी है नोट की भूखी मानवता का नाम नहीं।
क्रांतिकारियों ने क्या इसी भारत का सपना देखा था,
उनके स्वप्न की लाज बचा लो उसे करो बदनाम नहीं।
उठो भारती माँ के सपूतों मात्रभूमी पर संकट है,
बहुत हुआ बस बहुत हुआ अब और करो विश्राम नहीं।
Wednesday, 17 August 2011
एक बार फिर...............
एक बार फिर देश में स्वतंत्रता संग्राम हो जाने दो,
एक बार फिर हृदय को सबके राग बसंती गाने दो.
एक बार फिर से चमके रानी झाँसी की तलवारें,
एक बार फिर वीर सावरकर को हूँकार लगाने दो.
एक बार फिर गूँज उठे मंगल पांडे की लल्कारें,
एक बार फिर संसद में थोडे से बम गिर जाने दो.
एक बार फिर लालाजी का नारा हो 'साइमन गो बैक',
एक बार फिर पंडित जी को कुछ अंग्रेज़ उडाने दो.
एक बार फिर से बिस्मिल के हाथों में हों बंदूकें,
एक बार फिर नेताजी को लहु की माँग उठाने दो.
और उदय हो जाने दो अनंत स्वतंत्रता का सूरज,
एक बार फिर हिंद को मेरे आज़ादी को पाने दो.
एक बार फिर हृदय को सबके राग बसंती गाने दो.
एक बार फिर से चमके रानी झाँसी की तलवारें,
एक बार फिर वीर सावरकर को हूँकार लगाने दो.
एक बार फिर गूँज उठे मंगल पांडे की लल्कारें,
एक बार फिर संसद में थोडे से बम गिर जाने दो.
एक बार फिर लालाजी का नारा हो 'साइमन गो बैक',
एक बार फिर पंडित जी को कुछ अंग्रेज़ उडाने दो.
एक बार फिर से बिस्मिल के हाथों में हों बंदूकें,
एक बार फिर नेताजी को लहु की माँग उठाने दो.
और उदय हो जाने दो अनंत स्वतंत्रता का सूरज,
एक बार फिर हिंद को मेरे आज़ादी को पाने दो.
आज़ादी फिर से खो रही है
दुर्भाग्य पर अपने माँ भारती रो रही है,
कलमकारों की कलमें फिर भी सो रही हैं।
जहाँ प्राण त्यागे आज़ाद, मंगल, भगत ने,
उस धरती पर विदेशियों की अर्चना हो रही है।
जहाँ देव-तुल्य समझे जाते थे साधु,
वहाँ साध्वी साम्प्रदायिक हो रही हैं।
जहाँ गुरुकुलों में दी जाती थी दीक्षा,
वहाँ आज संस्कृत विलुप्त हो रही है।
जहाँ घंटे-शंखों से गूँजते थे शिवालय,
वहाँ पाँच वक़्त आज़ानें हो रही हैं।
संभल जाओ, उठो, जागो ऐ हिन्द वालों,
मेरी माँ की आज़ादी फिर से खो रही है।
कलमकारों की कलमें फिर भी सो रही हैं।
जहाँ प्राण त्यागे आज़ाद, मंगल, भगत ने,
उस धरती पर विदेशियों की अर्चना हो रही है।
जहाँ देव-तुल्य समझे जाते थे साधु,
वहाँ साध्वी साम्प्रदायिक हो रही हैं।
जहाँ गुरुकुलों में दी जाती थी दीक्षा,
वहाँ आज संस्कृत विलुप्त हो रही है।
जहाँ घंटे-शंखों से गूँजते थे शिवालय,
वहाँ पाँच वक़्त आज़ानें हो रही हैं।
संभल जाओ, उठो, जागो ऐ हिन्द वालों,
मेरी माँ की आज़ादी फिर से खो रही है।
Subscribe to:
Posts (Atom)